एक और विभाजन की तैयारी


राजीव गुप्ता
यूनान मिस्र रोमां सब मिट गए जहां से
बाकी अभी तलक है नामों-निशा हमारा !
कुछ बात है ऐसी कि हस्ती मिटती नहीं हमारी
सदियों रहा है दुश्मन दौरें जहां हमारा !!

भारत में इन पंक्तियों को भला किसने नहीं सुना होगा ? इतिहास साक्षी है कि भारत ने बहुतेरे आताताइयों के आक्रमणों को न केवल झेला है अपितु समय-समय पर उसका मुंहतोड़ जबाब भी दिया है. लेकिन ये आताताई कभी भी अपने मंसूबों में कामयाब नहीं हो पाए. उन्होंने हमें मजहब, ऊँच-नीच, भेदभाव, रीतिरिवाज, आदि के नाम पर आपस में खूब लड़ाने की कोशिश की परन्तु बहुत ज्यादा सफल नहीं हो पाए. क्योंकि अगर हमारे समाज ने उनका प्रतिकार किया तो उसका मूल कारण यह था कि हमारे यहाँ मतभेद तो था परन्तु कभी मनभेद नहीं रहा. यही भारतीय संस्कृति की परिणीति रही है. समय-समय पर शासकों की भौगोलिक सीमायें जरूर बदलती गयी परन्तु व्यक्ति कभी अपनी मूल भावना से नहीं भटका. देश में एकता रहे इसलिए आद्य गुरु शंकराचार्य जी ने अपनी दूरदर्शिता से देश में चार धामों की स्थापना की. और तो और महात्मा गांधी ने भी देश की एकता बनाये रखने के लिए भारत-पाकिस्तान के बटवारे के समय यहाँ तक कह दिया था कि दो मुल्कों का बटवारा मेरी लाश पर होगा. तात्पर्य यह है कि भारत के मनीषियों ने, सामाजिक चिंतकों ने हर संभव कोशिश की कि देश की एकता बनी रहे.

परन्तु वर्तमान प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली सरकार यूपीए-2 ने भारत को खंडित करने की लगभग पूरी तैयारी कर ली है. इस मानसून सत्र में एक ऐसा विधेयक लाने जा रही है जो सामाजिक वैमनस्य के साथ समाज में विभेद तो पैदा करेगी ही, साथ ही दिलों को भी बाँट देगी जिससे कि समुदायों के बीच दूरियां बढ़ना लगभग तय हैं. इस विधेयक का नाम है “सांप्रदायिक हिंसा रोकथाम (न्याय एवं क्षतिपूर्ति) विधेयक 2011“. पास होने के बाद यह अपने आप में एक ऐसा अभूतपूर्व कानून होगा जो देश के संविधान को भी ताक पर रख देगा, देश की एकता खतरे में पड़ जायेगी, और तो और यह भारत के संघीय ढांचे को ही नष्ट कर देगा और भारत में अंतर-सामुदायिक संबंधों में असंतुलन, असंतोष व रोष पैदा कर देगा. शुरू में तो विधेयक का प्रारूप देश में सांप्रदायिक हिंसा को रोकने के प्रयास के तौर पर नजर आता है, किंतु इसका असली उद्देश्य इसके उलट है. राज्य सभा में नेता प्रतिपक्ष के लेख के अनुसार बिल का सबसे महत्वपूर्ण पहलू है ‘समूह’ की परिभाषा. समूह से तात्पर्य पंथिक या भाषायी अल्पसंख्यकों से है, जिसमें आज की स्थितियों के अनुरूप अनुसूचित जाति व जनजाति को भी शामिल किया जा सकता है. मसौदे के तहत दूसरे अध्याय में नए अपराधों का एक पूरा व्यौरा दिया गया है. सांप्रदायिक हिंसा के दौरान किए गए अपराध कानून एवं व्यवस्था की सबसे बड़ी समस्या होते हैं जो कि राज्यों के कार्यक्षेत्र में आता है. केंद्र को कानून एवं व्यवस्था के सवाल पर राज्य सरकार के कामकाज में दखलंदाजी का कोई अधिकार नहीं है. केंद्र सरकार का न्यायाधिकरण इसे सलाह, निर्देश देने और धारा 356 के तहत यह राय प्रकट करने तक सीमित करता है कि राज्य सरकार संविधान के अनुसार काम रही है या नहीं. यदि प्रस्तावित बिल कानून बन जाता है तो केंद्र सरकार राज्य सरकारों के अधिकारों को हड़प लेगी. इस विधेयक के द्वारा न केवल बहुसंख्यकों अर्थात हिंदुओं को आक्रामक और अपराधी वर्ग में ला खड़ा करने, बल्कि हिंदू-मुस्लिमों के बीच शत्रुता पैदा कर हर गली-कस्बे में दंगे करवाने की साजिश है.

अगर यह बाबर जैसा आतातायी और औरंगजेबी फरमान जैसा कानून की शक्ल लेता है तो किसी भी बहुसंख्यक (हिंदू) पर कोई भी अल्पसंख्यक (मुस्लिम, ईसाई या अन्य) नफरत फैलाने, हमला करने, साजिश करने अथवा नफरत फैलाने के लिए आर्थिक मदद देने या शत्रुता का भाव फैलाने के नाम पर मुकदमा दर्ज करवा सकेगा और उस बेचारे बहुसंख्यक (हिंदू) को इस कानून के तहत कभी शिकायतकर्ता अल्पसंख्यक (मुस्लिम, ईसाई या अन्य) की पहचान तक का हक नहीं होगा. इसमें शिकायतकर्ता के नाम और पते की जानकारी उस व्यक्ति को नहीं दी जाएगी जिसके खिलाफ शिकायत दर्ज की जा रही है. इसके साथ ही शिकायतकर्ता अल्पसंख्यक (मुस्लिम, ईसाई या अन्य) अपने घर बैठे शिकायत दर्ज करवा सकेगा. इसी प्रकार यौन शोषण व यौन अपराध के मामले भी केवल और केवल अल्पसंख्यक (मुस्लिम, ईसाई या अन्य) बहुसंख्यक (हिंदू) के विरुद्ध दर्ज करवा सकेगा और ये सभी मामले अनुसूचित जाति और जनजाति पर किए जाने वाले अपराधों के साथ समानांतर चलाए जाएंगे. इसका मतलब है कि संबंधित बहुसंख्यक (हिंदू) व्यक्ति को कभी यह नहीं बताया जाएगा कि उसके खिलाफ शिकायत किसने दर्ज कराई है ? इसके अलावा उसे एक ही तथाकथित अपराध के लिए दो बार दो अलग-अलग कानूनों के तहत दंडित किया जाएगा. यही नहीं, यह विधेयक पुलिस और सैनिक अफसरों के विरुद्ध उसी तरह बर्ताव करता है जिस तरह से कश्मीरी आतंकवादी और आइएसआइ उनके खिलाफ रुख अपनाते हैं. विधेयक में ‘समूह’ यानी अल्पसंख्यक (मुस्लिम, ईसाई या अन्य) के विरुद्ध किसी भी हमले या दंगे के समय यदि पुलिस, अ‌र्द्धसैनिक बल अथवा सेना तुरंत और प्रभावी ढंग से स्थिति पर नियंत्रण प्राप्त नहीं करती तो उस बल के नियंत्रणकर्ता अथवा प्रमुख के विरुद्ध आपराधिक धाराओं में मुकदमे चलाए जाएंगे. कुल मिलाकर हर स्थिति में पुलिस या अ‌र्द्धसैनिक बल के अफसरों को कठघरे में खड़ा होना होगा, क्योंकि स्थिति पर नियंत्रण जैसी परिस्थिति किसी भी ढंग से परिभाषित की जा सकती है. इस विधेयक की धाराएं किसी भी सभ्य, समान अधिकार संपन्न एवं भेदभावरहित गणतंत्र के स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है.

इस विधेयक को बनाने वालों ने सांप्रदायिक हिंसा रोकने के लिए जिस सात सदस्यीय समिति के गठन की सिफारिश की है, उसमें चार सदस्य मजहबी अल्पसंख्यक होंगे. विधेयक मानकर चलता है कि यदि समिति में अल्पसंख्यकों का बहुमत नहीं होगा तो समिति न्याय नहीं कर सकेगी. दंगो के दौरान होने वाले जान और माल के नुकसान पर मुआवजे के हक़दार सिर्फ अल्पसंख्यक ही होंगे। किसी बहुसंख्यक का भले ही दंगों में पूरा परिवार और संपत्ति नष्ट हो जाए उसे किसी तरह का मुआवजा नहीं मिलेगा. वह भीख मांग कर जीवन काट सकता है. हो सकता है सांप्रदायिक हिंसा भड़काने का दोषी सिद्ध कर उसके लिए जेल की कोठरी में व्यवस्था कर दी जाए.
एक संगठन ने इस मसले पर एक लेख निकाला है. उस लेख के अनुसार इस कानून के कुछ बिदुओं को देखने से यह स्पष्ट हो जाता है यह दुर्भावना, पक्षपात एवं दुराग्रह से ग्रसित है. समाज के बहुसंख्यक वर्ग को इसके माध्यम से न केवल प्रताड़ना और अत्याचार का शिकार बनाया जा सकता है अपितु दोयम दर्जे के डरे हुए वातावरण में रहने के लिए बाध्य होना पड़ेगा. अतः समाज के लोगों को यह जानना अत्यंत आवश्यक है कि वर्तमान सरकार अपने इस मसौदे से उन्हें क्या देना चाहती है ?

अधिनियम का प्रभाव क्षेत्र – इस अधिनियम की धारा 1 की उपधारा 2 के अनुसार इसका प्रभाव क्षेत्र सम्पूर्ण भारतवर्ष होगा. जम्मू-कश्मीर में राज्य की सहमति से इसे विस्तारित किया जायेगा. यह अधिनियम पारित किये जाने की तारीख से एक वर्ष के भीतर लागू होगा तथा एसे अपराध जो भारत के बाहर किये गए है उन पर भी इस अधिनियम के उपबंधों के अंतर्गत उसी प्रकार कार्यवाही होगी जैसे वह भारत के भीतर किया गया हो. एक वर्ष के भीतर लागू किये जाने की बाध्यता को रखकर यह सुनिश्चित करने का प्रयास किया गया है कि वर्तमान सरकार और राष्ट्रीय सलाहकार समिति की वर्तमान अध्यक्षा के रहते ही यह कानून अनिवार्य रूप से लागू कर दिया जाय.

समूह अधिनियम की धारा 3(F) के अंतर्गत दी गयी परिभाषा के अनुसार भारत संघ के किसी राज्य में कोई धार्मिक एवं भाषाई अल्पसंख्यक या भारत के संविधान के अनुच्छेद 366 खंड 24-25 के अंतर्गत अनुसूचित जातियां और अनुसूचित जान जातियां समूह के अंतर्गत आती है और इन्ही समूह पर किये गए अपराध के लिए यह कानून प्रभावी होता है. एक ज्वलंत उदाहरण से इसको समझने का प्रयास करते है कि वर्तमान एक राज्य गुजरात जिसकी विकास दर भारत के सभी राज्यों से सबसे अधिक है वहां कभी दो समुदायों के बीच एक दंगा होता है, जो कि अल्पसंख्यक समुदाय द्वारा शुरू किया गया था इसके साक्षी हममे से बहुत लोग होंगे. अब प्रश्न यह उठता है कि समूह के अंतर्गत समाविष्ट किये गए धार्मिक अल्पसंख्यक क्या सांप्रदायिक या लक्षित हिंसा में सम्मिलित नहीं होते ? इस कानून की तो यही मान्यता है. इस कानून के अनुसार इस सुनियोजित कुकृत्य में संलिप्त अल्पसंख्यक समुदाय के लोग जो समूह के अंतर्गत आते है अपराधी नहीं है, परन्तु इस घटना की स्वतः स्फूर्त प्रतिक्रिया में सम्मिलित बहुसंख्यक (हिन्दू) लोग अपराधी है. दूसरा प्रश्न यह उठता है कि यदि दो समूहों के बीच ही अगर सांप्रदायिक हिंसा हो जाय तो यह कानून किस प्रकार प्रभावी होगा ?


सांप्रदायिक और लक्षित हिंसा – इस अधिनियम की धारा 3 (C) के अनुसार जानबूझ कर किसी व्यक्ति के विरुद्ध किसी समूह की सदस्यता के आधार पर ऐसा कोई कार्य या कार्यों की श्रंखला जो चाहे सहज हो या योजनाबद्ध जिसके परिणाम स्वरुप व्यक्ति या सम्पति को क्षति या हानि पहुंचती हो.

किसी समूह के विरुद्ध शत्रुता का वातावरण – अधिनियम की धारा 3 (G ) के अनुसार अधिनियम में परिभाषित समूह के किसी व्यक्ति का समूह की सदयस्ता के आधार पर व्यापर या कारोबार का बहिष्कार या जीविका अर्जन करने में उसके लिए अन्यथा कठिनाई पैदा करना, तिरस्कार पूर्ण कार्य करना चाहे वह इस अधिनियम के अधीन अपराध हो या ना हो परन्तु जिसका प्रयोजन एवं प्रभाव भयपूर्ण शत्रुता या आपराधिक वातावरण उत्पन्न करना हो. यह ऐसे विषय है जिनको निश्चित कर सकना अत्यंत कठिन है. कोई व्यक्ति किस बात से अपने आपको शर्मिंदा अनुभव करेगा या उसे कौन सा कार्य भयपूर्ण लग सकता है यह निर्धारित कर पाना अत्यंत कठिन है. समूह के अतिरिक्त यदि किसी बहुसंख्यक को धर्म के नाम पर अपमानित किया जाता है या उसे व्यापार में अवरोध उत्पन्न किया जाता है तो समूह का व्यक्ति अपराधी नहीं मना जायेगा.

पीड़ित – इस अधिनियम के अनुसार पीड़ित वही व्यक्ति है जो किसी समूह का सदस्य है. समूह के बाहर किसी बहुसंख्यक की महिला से अगर दुराचार किया जाता है या अपमानित किया जाता है या जान-माल की हानि या क्षति पहुचाई जाती है तो भी बहुसंख्यक पुरुष या महिला पीड़ित नहीं माने जायेगे. परन्तु धारा 3 (J) के अनुसार अपराध के फलस्वरूप किसी समूह का कोई व्यक्ति शारीरिक, मानसिक मनोवैज्ञानिक या आर्थिक हानि उठाता है तो न केवल वह अपितु उसके रिश्ते-नातेदार, विधिक संरक्षक और विधिक वारिस भी पीड़ित माने जायेगे. मानसिक एवं मनोवैज्ञानिक हानि को मापने पा पैमाना क्या होगा यह स्पष्ट नहीं किया गया.


घृणा या दुष्प्रचार – अधिनियम की धारा 8 के अनुसार शब्दों द्वारा या बोले गए या लिखे गए या चित्रण किये गए किसी दृश्य को प्रकाशित, संप्रेषित या प्रचारित करना, जिससे किसी समूह या समूह के व्यक्तियों के विरुद्ध समानताय या विशिष्टतया हिंसा का खतरा होता है या कोई व्यक्ति इसी सूचना का प्रसारण या प्रचार करता है या कोई ऐसा विज्ञापन व सूचना प्रकाशित करता है जिसका अर्थ यह लगाया जा सकता हो कि इसमें घृणा को बढ़ावा देने या फ़ैलाने का आशय निहित है. उस समूह के व्यक्तियों के प्रति इसी घृणा उत्पन्न होने की सम्भावना के आधार पर वह व्यक्ति दुष्प्रचार का दोषी है. ऐसी प्रस्थिति में यदि कोई समाचार-पत्र आतंकवादियों के उन्माद भरे बयानों को प्रकाशित करता है तो उसका प्रकाशक अपराधी मना जायेगा. अर्थात फाँसी की सजा काट रहे आतंकवादियों का नाम प्रकाशित करने पर भी पाबंदी होगी. आतंकवाद के खिलाफ परिचर्चा, राष्ट्रीय सेमीनार का आयोजन करना भी अपराध माना जायेगा जो कि संविधान द्वारा प्रदत्त अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार को भी बाधित करेगा.


संगम, सभा, या परिषद् – अधिनियम की धारा 3 (B) के अनुसार व्यक्तियों का ऐसा संगठन या समुच्चय जो पंजीकृत या निगमित हो या न हो.


अपराध के लिए संगम, सभा, या परिषद् के वरिष्ठ अधिकारीयों का उत्तरदायित्व – धारा 15 (1) के अनुसार किसी संगम का कोई कार्यकर्त्ता या वरिष्ठतम अधिकारी या पद धारी अपनी कमान के नियंत्रण पर्यवेक्षक के अधीन अधीनस्थों के ऊपर नियंत्रण रखने में असफल रहता है तो इस अधिनियम के अधीन यदि कोई अपराध किया जाता है तो वह अपने अधीनस्थों द्वारा किये गए अपराध का दोषी होगा. अर्थात किसी संगठन का सामान्य से सामान्य कार्यकर्त्ता भी इस अधिनियम के आधार पर यदि अपराधी सिद्ध होता है तो शीर्ष नेतृत्व भी अपराधी माना जायेगा.

सांप्रदायिक सामंजस्य, न्याय और क्षतिपूर्ति के लिए राष्ट्रीय प्राधिकरण – केंद्र सरकार इस अधिनियम के अधीन इसमें दी गयी शक्तियों का प्रयोग एवं कृत्यों का पालन करने हेतु ‘सांप्रदायिक सामंजस्य, न्याय और हानिपूर्ति राष्ट्रीय प्राधिकरण’ का गठन करेगी, जिसमे एक अध्यक्ष, एक उपाध्यक्ष और पांच अन्य सदस्य होंगे. यह प्राधिकरण स्वयं अपने आप में एक सांप्रदायिक निकाय होगा क्योंकि अधिनियम की धारा 21 (3) के अनुसार प्राधिकरण में अधिनियम में परिभाषित समूह के चार सदस्य अध्यक्ष और उपाध्यक्ष सहित अनिवार्य रूप से होंगे. अतः समूह के सदस्य सदैव बहुमत में रहेंगे.



मुझे इतिहास में पढाया गया था कि भारत का विभाजन 1947 में धर्म के आधार पर हुआ था जिसकी बुनियाद कई वर्ष पहले ही बाहर से आये हमारे ऊपर हुकूमत करने वाले अंग्रेजों द्वारा फूट डालो और शासन करो के रूप में रखी जा चुकी थी. दो सम्प्रदायों के बीच इतनी कड़वाहट घोल दी गयी थी कि ट्रेनें लाशों से भरी हुई इधर-उधर आ जा रही थी. इससे लगभग हम सभी भालिभाँती विदित है. तो क्या इस मौजूदा सरकार ने भी एक और विभाजन की तैयारी मनभेद पैदा कर शुरू कर दी है ऐसा मान लिया जाय ?

(राजीव गुप्ता-vision2020rajeev@gmail।com )
साभार -लोकमंच डोट कॉम

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